पहलगाम में नृशंस हमला हुआ। देश के अंदर हमारे नागरिकों को आतंकवादियों द्वारा मारा गया। स्वाभाविक ही, सबके मन में दुख तथा क्रोध था। अपराधियों को दंड मिले, ऐसी शासन की उत्कट इच्छा थी। अत: कुछ कार्रवाई हुई। इस सारे प्रसंग में अपनी सेना की क्षमता और वीरता फिर से एक बार चमक उठी। हमारे रक्षा अनुसंधान कारगर सिद्ध हुए। उनका पराक्रम सामने आया। शासन-प्रशासन में जिनके पास निर्णय लेने का दायित्व था उनकी दृढ़ता भी हम सबने देखी। हमारे पूरे राजनयिक वर्ग में, सब दलों के राजनयिकों में देश हित में चिरप्रतीक्षित सूझबूझ और आपसी सहयोग दिखा।
संपूर्ण समाज ने अपनी एकता का अनूठा परिचय दिया। अपने देश के लिए यह बहुत बड़ा संबल है। देशभक्ति के इस वातावरण में हम जैसे सारे मतभेद भूल गए। आपसी स्पर्धाएं भूल गए, देश के हित में एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। यह दृश्य वास्तव में उत्तम प्रजातंत्र का दृश्य है। यह आगे भी ऐसे ही रहना चाहिए, ऐसी सदिच्छा हम सबके मन में है। साथ ही, हम यह भी जानते हैं कि यह सब होने के बाद समस्या तो मिटी नहीं, इसके पीछे समस्या है द्विराष्ट्रवाद। सब शांतिपूर्वक रह सकें इसलिए ताे अलग हुए, लेकिन अलग होने के साथ ही उन्होंने अशांति करनी प्रारंभ कर दी। जब तक यह दोगलापन नहीं जाता तब तक देश पर ये खतरे बने रहेंगे।
हम देखते हैं युद्ध के प्रकार भी बदले। आमने सामने लड़कर नहीं जीत सकते तो ‘थाउजेंड कट्स’ की नीति अपनाई। आतंकवाद का सहारा लेकर उसके जरिए लड़ते रहे। साइबर युद्ध आदि के सहारे छद्म युद्ध चलता रहा है। युद्ध के प्रकार आजकल बदल गए हैं। आमने- सामने आकर जो जीता वह सिकंदर जैसा अब नहीं रहा। अपने घर में बैठकर, बटन दबाकर इधर ड्रोन छोड़े जा सकते हैं। यह सारी स्थिति हमारे सामने आई है। इस निमित्त दुनिया के देश क्या करते हैं, उन्होंने क्या किया है, उसकी भी परीक्षा हो गई है।
सत्य के साथ पूर्णतः कौन खड़े होते हैं? उनमें भी कौन स्वार्थ देखकर खड़े होते हैं? कौन सही मायने में हमारे विरोधी हैं। यह सारी परीक्षा हो गई है और इसलिए यह बात ध्यान में आती है कि अपनी सुरक्षा के मामले में हम लोगों को ‘स्व निर्भर’ होना ही पड़ेगा। हम तो सत्य और अहिंसा वाले देश हैं। हम मानते हैं, दुनिया में हमारा कोई भी दुश्मन नहीं है। परंतु दुनिया में दुष्टता है। उसके चलते बिना कारण इस प्रकार की हरकतें करने वाले लोग हैं। अत: हमें अपनी सुरक्षा के लिए पूर्ण सन्नद्ध और पूर्ण सजग होना पड़ेगा।
नई-नई प्रकार की तकनीक का अनुसंधान होना चाहिए। सेना प्रमुख ने कहा है कि सारे अनुभवों का हम भी विचार कर रहे हैं। हमको कहां और आगे बढ़ना है, क्या-क्या करना है, यह सब साथ में चलना चाहिए। सेना, शासन, प्रशासन, सब लोग यह करें। परंतु केवल यह काफी नहीं होता, असली बल तो समाज का होता है।
द्वितीय महायुद्ध में लगातार महीने भर हिटलर ने पूरी ताकत से लंदन पर बमबारी की ताकि वह देश झुक जाए। देश का नेतृत्व विचार करने लगा कि उसकी शरण जाना चाहिए। क्या सेना समाप्त हो गई?वायुसेना नहीं है, नौसेना पक्का नहीं है? और हिटलर का दोस्त मुसोलिनी तैयार था कि बीच-बचाव करे। तो चर्चिल जैसे प्रधानमंत्री के मन में विचार आया कि अब क्या करें? उसने इंग्लैंड के राजा को बताया कि मेरा मन तो नहीं है लेकिन मेरा मंत्रिमंडल चाहता है कि हम लोग संधि कर लें और नुकसान से बचें। इतना विनाश हो रहा है। हमारे पास इसे रोकने की ताकत नहीं है। तब राजा ने उससे पूछा कि, तुम्हारे मंत्रिमंडल ने तुमको चुना है? किसने चुना है? जनता ने तो उससे पूछो। फिर चर्चिल इंग्लैंड के शहरों में घूमा। उसने लोगों से बात की।
वे आम लोग क्या जानें कि युद्ध क्या होता है? कितना नुकसान उठाना पड़ता है? अपनी ताकत क्या है? लेकिन उनके मन में एक देशभक्ति का भाव था, तो वे चर्चिल से कहने लगे, हिटलर की शरण बिल्कुल नहीं जाना। हम लड़ेंगे। गली-गली में लड़ेंगे। हमारे पास कुछ नहीं होगा तो बर्तनों से लड़ेंगे। लड़ना क्या होता है, उसकी कल्पना तक उनको नहीं थी। तब उसके आधार पर चर्चिल ने संसद में जाकर संधि का विचार छोड़ दिया और कहा कि हम आसमान में लड़ेंगे, समुद्र में लड़ेंगे। और कदाचित इस लड़ाई में हमको विजय नहीं मिली तो हमारी अगली पीढ़ी, हमारे साम्राज्य में जो बाकी देश है, वहां लड़ाई जारी रहेगी। लेकिन हम पूर्ण विजय प्राप्त किए बिना नहीं रहेंगे। शरण तो बिल्कुल नहीं जाएंगे।
यह बल उनको कहां से प्राप्त हुआ? युद्ध के बाद चर्चिल का अभिनंदन किया गया। चर्चिल को ‘लॉयन ऑफ इंग्लैंड’ कहा गया। उत्तर में चर्चिल ने कहा, ‘मैं लॉयन नहीं हूं। यू आर लॉयन।’ वास्तव में देश का असली बल उसके समाज का बल होता है। और इसलिए हमारे समाज को बहुत सजग रहना चाहिए। एक रहना चाहिए। हमारा देश विविधताओं का देश है। यहां कई प्रकार की विविधताएं हैं और समस्याएं भी हैं। कभी-कभी एक की समस्या दूसरे के ध्यान में नहीं आती। एक के लिए लाभ की बात दूसरे के लिए नुकसान की बात होती है। इस सारे जंजाल में से देश के लिए एक निर्णय करना, यह बहुत टेढ़ा काम हो जाता है। उसके चलते समाज में असंतोष भी रहता है। यह स्वाभाविक है। यह सही भी है। देशहित की दृष्टि से यह सब हमारे लिए जायज नहीं है। समाज के किसी वर्ग की किसी वर्ग से लड़ाई न हो, यह हमको देखना ही पड़ेगा। आपस में सद्भावना का व्यवहार ही रखना पड़ेगा। भावना अतिरेक में आततायी नहीं बनना है। जहां आवश्यक नहीं, वहां झगड़ा खड़ा नहीं करना है। कानून हाथ में लेकर चाहे जो नहीं करना है।
एक जमाना था जब हम परतंत्र थे। हम भी लड़ाई चाहते थे। लेकिन अब हमारा शासन है। भारत का शासन है। भारत के संविधान के अनुसार शासन है तो समाज के आपसी व्यवहार में हिंसा करना, बिना कारण गाली गलौज वाली भाषा का उपयोग करना, प्रतिक्रिया में आकर कुछ भी बोलना आदि ऐसी सारी बातें हमको छोड़ देनी पड़ेंगी। ठंडे दिमाग से विचार करके उकसाने वाले, भड़काऊ भाषा बोलने वाले लोगों के चंगुल में नहीं फंसना है। अपने स्वार्थ लाभ के लिए समाज में इस प्रकार की फूट डालने वाले लोग हैं। हम सदियों से एक रहे, एक रहेंगे। हमारा आपस में सद्भाव रहा है। आज सदाचार, सद्विचार और सहयोग करने की आवश्यकता है क्योंकि हम सब अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले, अलग-अलग देवी देवताओं की पूजा करने वाले, अलग-अलग खानपान, रीति-रिवाज वाले, अलग- अलग हित संबंध वाले लोग हैं। हमारी जड़ें तो एकता में हैं, विविधता में नहीं हैं।
रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि विविधता में एकता का परिचय देना और एकता के आधार पर विविधता का समन्वय सिखाने का काम ही प्रमुख रूप से भारत का धर्म है। हमारी जड़ें एकता में होनी चाहिए। मैं अपनी भाषा बोलूंगा। उस भाषा के प्रति मेरे मन में गौरव है। मेरी अपनी पूजा है। वह मुझे प्रिय है। ये सारी बातें मेरी विशिष्टता हैं। मेरे लिए प्रिय हैं। उनका रक्षण करना है। लेकिन इन सबके ऊपर हमारी सबकी एकता है। सारी विविधता होने के बाद भी देश के नाते, एक समाज के नाते, एक ही सनातन संस्कृति का प्रवाह हम सब के आचरण को निर्धारित करता आया है। हम सबकी मूल्य-व्यवस्था समान है। पूर्वजों से हम एक हैं, कोई मुझसे अलग नहीं। अंग्रेजों द्वारा यह भ्रम पैदा किया गया है कि विविध प्रकार के लोगों को एक नहीं होना है। इसलिए हम भूल गए थे कि हम एक हैं, हमको एक होना है। वास्तव में तो सारा विश्व एक है, मानव एक है। उस एकता का भान सारी दुनिया को कराना है। हमारे भारत की स्वतंत्रता का, जो 15 अगस्त, 1947 में हम स्वतंत्र हुए उस दिवस का प्रयोजन क्या है? उसका प्रयोजन यही है। उसके लिए हमको तैयार होना है। विविधताओं को संभालते हुए, उनको स्वीकारते हुए, उनका सम्मान करते हुए, एकता पर सबकी दृष्टि लाना और उसके आधार पर मानव जाति का विकास पथ पुनर्निर्धारित करना। हमें इसका उदाहरण दुनिया के सामने रखना है। दुनिया को उसकी आवश्यकता है।
विकास और पर्यावरण का विरोध क्यों होना चाहिए? क्या दोनों साथ-साथ चल नहीं सकते? चल सकते हैं। लेकिन सारी योजनाएं एकता का विचार मन में रखकर बननी चाहिए। हमारे जनजातीय बंधु हमारा ही समाज है। हमारे समाज में अनेक देवी-देवता हैं। संघ का काम संपूर्ण हिंदू समाज में है। संघ सबको एक मानता है। शासन अपना काम करेगा। लेकिन समाज की अपनी ताकत है। शासन प्रशासन में सुनवाई नहीं होती तो कानून का उपयोग कैसे करें जिससे कि समाज में भेद उत्पन्न न हो? हमारे स्वयंसेवकों ने विभिन्न संगठनों के माध्यम से काम किया है।
समाज में कन्वर्जन का विषय चलता है। कन्वर्जन क्यों होना चाहिए? सबके अपने तरीके हैं पूजा के, खानपान के। संस्कृति अलग-अलग है। रुचि प्रकृति के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार, अपनी सोच के अनुसार। यह बिल्कुल स्वाभाविक बात है। सब जाते हैं एक ही दिशा में। अगर बीच में स्वार्थ ना आए, विकार ना आए, अपना स्वार्थ साधने की सोच ना हो तो कुछ बिगड़ता नहीं। ऐसा है तो फिर कन्वर्जन क्यों करना? सभी रास्ते सत्य हैं तो ईसाई क्यों नहीं बनना? तो उन्होंने कहा कि अगर सभी रहते सत्य तो तो ईसाई क्यों बनना? इसके लिए लोभ, लालच, जबरदस्ती करना, यह कहकर करना कि ‘तुम्हारा रास्ता गलत है, तुम्हारे पूर्वज गलत थे, हम तुमको सही कर रहे हैं’, यह एक प्रकार से गाली देना है। कन्वर्जन हिंसा है। हमने उसका कभी समर्थन नहीं किया। हमें पंथ संप्रदायों से कोई बैर नहीं है। सब अपने-अपने तरीके से चलेंगे। लोभ, लालच, जबरदस्ती से कन्वर्ट हुए लोग अगर वापस आना चाह रहे हैं तो उनको स्वीकार करना चाहिए। इन सब बातों में हम आपके साथ हैं। जनजातीय समाज कोई अलग समाज नहीं है। हमारी संस्कृति जंगलों और खेती में से जन्मी है।इसलिए ‘आदिवासी’ समाज हमारा मूल है। उनकी अपनी भाषाओं का तत्वज्ञान नासदीय सूक्त केनिकट है।
पर्यावरण के प्रति मित्रता जरूरी है। सब जगह पवित्रता देखना, पेड़-पौधों का सम्मान करना, निसर्ग की पूजा करना आदि भारत को छोड़कर और कहां है यह परंपरा? हम आज अपने आप को हिंदू कहते हैं। हिंदू बने हैं। कहां से बने? वहीं से बने। हम समाज के बल के आधार पर काम करते हैं। लेकिन हम दस कदम आगे जाते हैं तो पांच कदम पीछे आते हैं। यह हमेशा से होता रहा है। सारे परिवर्तन समाज से ही होते हैं। इसलिए अपने आचरण, उदाहरण से समाज में परिवर्तन का वातावरण उत्पन्न करना है ताकि समाज खुद अपना परिवर्तन करे। फिर नीतियों में परिवर्तन आना अवश्यंभावी है। इसके लिए धैर्य रखना पड़ेगा।
हमारा देश स्वतंत्र है। हम हजार साल तक परतंत्र रहे इसलिए हमको लड़ने की आदत हो गई। बगावत करने की आदत हो गई। तब वह आवश्यकता थी। लेकिन अब सब अपने लोग हैं। वे कभी-कभी अपनापन भूल जाते हैं तो भी नरमाई रखते हुए, प्रतीक्षा करके अपने आप को ठीक रखकर अगर सब किया जाए तो परिवर्तन आएगा। जन-गण-मन को जाग्रत करने वाला वातावरण बनाने का काम करने के लिए एक देशव्यापी कार्यकर्ता समूह का निर्माण करना ही संघ का कार्य है। हम वही कर रहे हैं। इसे हम अपनी पद्धति से करते हैं, अपने बलबूते करते हैं, किसी को मदद के लिए नहीं पुकारते। मदद के लिए जो अपने आप आए, उसका स्वागत है। हमारी गति थोड़ी धीमी रहती है। हम उसको बढ़ाएंगे। लेकिन मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि हम सब मिलकर अपना भाग्य संवारने में लग जाएं तो सभी समस्याओं का निदान निकलेगा। ऐसे कार्यकर्ता तैयार करने का प्रशिक्षण इन वर्गों में होता है। नागपुर में 98 साल से यह वर्ग हो रहा है। देशभर के ऐसे कार्यकर्ता इस वर्ग में से खड़े होते हैं। उनके कार्य में जुटने से देश का वातावरण बदलता है।
1925 में संघ स्थापना के समय समाज का मन कैसा था, वातावरण कैसा था और आज संघ के 100 साल पूरे होते तक संघ के संदर्भ में समाज का मन कैसा है, वातावरण कैसा है? चार दिन शोर मचाकर किया जाने वाला काम दो दिन में समाप्त हो जाता है। सावरकर जी ने एक बार संघ के कार्यक्रम में कहा था कि, हमारा काम मूसलाधार वर्षा जैसा है। दो-तीन घंटे में सब इधर-उधर हो जाता है। पानी बह जाता है। आर्द्रता भी सूख जाती है। वृक्षों को, फसल को उसका लाभ नहीं मिलता। संघ का काम ऐसा है जैसे, बूंद बूंद वर्षा होती है। वह जमीन में पड़े बीज को पोषित करती है। सोये बीजों को अंकुरित करती है और उसमें से फसल खड़ी होती है। संघ का तरीका यही है।
इन बातों को अपने जीवन में चरितार्थ करने वाले समाज के साथ अतिशय प्रेम रखने वाले, मन में बिल्कुल भेद न रखते हुए सबको अपना मानने वाले चारित्र्य संपन्न कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है और संघ ऐसे ही कार्यकर्ताओं के निर्माण का काम कर रहा है। लेकिन यह काम केवल संघ का नहीं है, हम सबको मिलकर अपना भाग्य बनाना है। हम सबके भाग्य में ही देश का भाग्य है। उसे संवारने के लिए काम चल रहा है। इसमें प्रत्यक्ष सक्रियता की आवश्यकता है।